Monday, November 7, 2011
गुहार
जब जब गरीबी बढती है
वो सभाए रचवाता है
इन सभाओ में भी
वो हमारे पैसे लुटवाता है
खून पसीने की मेहनत को
तुम ऐसे ना बर्बाद करो ।
खुद को महात्मा कहने वाले
अब इंसानों से बात करो । ।
खुद के बच्चो को वो खिलौने
नित नए दिलवाता है
सड़क पे बैठे भूखे बच्चो पे
वो तरस कभी न खाता है
इंसानों का दिल रखते हो तो
तुम ऐसे ना पाप करो ।
खुद को महात्मा कहने वाले
अब इंसानो से बात करो । ।
पक्ष विपक्ष के दौर भाग पे
किस्से सुनाते रहते हो
धर्म , जाति और राष्ट्रभक्ति के
मुद्दे उठाते रहते हो
बहुत सुन लिया हिन्दू मुस्लिम
अब और न परेशान करो ।
खुद को महात्मा कहने वाले
अब इंसानों से बात करो । ।
पेट बांध के बैठी हूँ
और लाल की साँसे छोड़ चुकी है
जंगल , लकड़ी के गठठे
पीठ पावे फोड़ चुकी है
अब कुछ दिन शेष है इस जीवन के
तुम उसको आबाद करो ।
खुद को महत्मा कहने वाले
अब इंसानों से बात करो । ।
रैली ,चुनाव प्रचार प्रसार पर
पैसो का बिखड़ा है जाल
पेट भर भोजन किये
हमको हुए है सालो साल
उन चुनाव के पैसो का
कुछ हम पे भी दान करो ।
खुद को महात्मा कहने वाले
अब इंसानों से बार करो । ।
लोगो के पैसो पर तुम
देश विदेश भी जाते हो
एक मामूली चोट पर
लाखो खर्च कर आते हो
चोरी चमारी ,दमा बुखार बस
अब अस्पताल निर्माण करो ।
खुद को महात्मा कहने वाले
अब इंसानों से बात करो । ।
कर्तव्य निष्ठा से भरे
हर जवान का विश्वास हो तुम
राम रहीम संत हकीम
के दीये की आस हो तुम
खुद के इन सद आचरणों पे
तुम खुद ही ना अठाहास करो ।
खुद को महात्मा कहने वाले
अब इंसानों से बात करो । ।
© आदित्य कुमार
Wednesday, August 24, 2011
अंत
अंत ही हर किसी की संपत्ति होती है
वो बुरी भी हो सकती है , अच्छी भी
वो किसी को रुला सकती है
एक बार
वो किसी को रुला सकती है
बार बार
पर जो रुलाये बार बार
मैं उस अंत की दुआ करता हूँ
"कितना बुरा " का कोई अंत नहीं होता
जिन्दगी और अंत के बीच
लगते है कई झूले
और उस पर झूलते
कई बिता देते है पूरी जिन्दगी
अपनी पूरी जिन्दगी !!
पर अंत उन्हें भी नसीब होती है
वो भयानक,भयावह,भयंकर
को साकार कर सकती है
वो भय के समुन्दर
को पार कर सकती है
वो रुलाती है हमें
हम रुलाते है उन्हें
पर जो रुलाये बार बार
मैं उस अंत की दुआ करता हूँ
खून, रिश्ते, घर, परिवार
शोषण ,लड़ाई, निर्णय ,अत्याचार
इन सब में भी
वो रहती है सजग ,स्थिर
तुम्हारे आँखों के सामने
हँसाने को ,रुलाने को
बेताब तुम्हे अपनाने को
पर जो रुलाये बार बार
मैं उस अंत की दुआ करता हूँ
अंत के निष्कर्ष पर
पहुचना नहीं आसान
पर जो पहुच गया
वो कहलाता नहीं इंसान
बेसब्री , बेताबी, बेचैनी ,इंतज़ार
तड़पन, घुटन, गुस्सा, अंधकार
ये सब रास्ते में खड़े
पर इनसे परे
वो खुद अपनाएगी तुम्हे
एक नन्हे शिशु की तरह
गोद में ले जाएगी तुम्हे
सबसे दूर ,बहुत दूर ....
और जब, तुम
परिस्थितियों से अनजान बच्चे की तरह
रोओगे अपनी जिद पर
ढ़ाढस ,सान्तवना ,सलाह, विचार
बहाने, तराने, प्रेम, अहंकार
सब कुछ देगी तुम्हे
पर हारकर ,तुम्हे एक बार
फिर वो रुलाएगी
पर जो रुलाये बार बार
मैं उस अंत की दुआ करता हूँ ॥
© आदित्य कुमार
Monday, July 4, 2011
उठती आवाजे
आवाज बहुत सुनी सुनी है
फिर भी पहचान नही पाते है
ये कभी बोलती है
कभी बजती है
अन्तर समझ नही पाते है
करती रहती है प्रयास
हर दम , निरन्तर
ध्यान बटाने को
चिढ़ जाने को
या फिर.....
अपना अस्तित्व जताने को
अपना लोहा मनवाने को
घुल जाती है , मिल जाती है
दम तोड़कर
एक एहसास का चिन्ह छोड़कर
कि कहा है वो ज्ञानी मन
वो शिक्षा..
जिसने गाये थे गीत
मेरी ही आवाज मे
अन्दर से ठूँठ , बाहर से हरा
मत करो ऐसे बहाने यहाँ
क्यो कि ..
हमने सुना है तुम्हे कहते
"आवाज बहुत सूनी सूनी है "।।
© आदित्य कुमार
फिर भी पहचान नही पाते है
ये कभी बोलती है
कभी बजती है
अन्तर समझ नही पाते है
करती रहती है प्रयास
हर दम , निरन्तर
ध्यान बटाने को
चिढ़ जाने को
या फिर.....
अपना अस्तित्व जताने को
अपना लोहा मनवाने को
घुल जाती है , मिल जाती है
दम तोड़कर
एक एहसास का चिन्ह छोड़कर
कि कहा है वो ज्ञानी मन
वो शिक्षा..
जिसने गाये थे गीत
मेरी ही आवाज मे
अन्दर से ठूँठ , बाहर से हरा
मत करो ऐसे बहाने यहाँ
क्यो कि ..
हमने सुना है तुम्हे कहते
"आवाज बहुत सूनी सूनी है "।।
© आदित्य कुमार
Wednesday, April 6, 2011
बेपर उड़ान (सच्चाई)
भूल जाता हूँ
रहकर बहुत कभी
रम जाता हूँ उसमे भी
खोल देता हूँ द्वार सारे
औरो के झाकने को
भटकती रहती है निगाहे
इस द्वार उस द्वार
देखने को द्वार
जो खुला ही उस पार
जी करता है
दौर लगाने का
दरवाजे खटखटाने का
खिडकियों से राज जानने का
किसी और के महल से
अपने महल को देखने का
और कभी पर जाते है नैन
कही रख्खे आईने पर
तो कराता है आभास
खुद अपना प्रतिबिम्ब
की अब भी सूखी है झील
पानी के तरस में
सच्चाई गले में दबाये
एक बार फिर
नजर आता हूँ बंद
उसी कोठरी में
बाते करता अपने आप से
© आदित्य कुमार
रहकर बहुत कभी
रम जाता हूँ उसमे भी
खोल देता हूँ द्वार सारे
औरो के झाकने को
भटकती रहती है निगाहे
इस द्वार उस द्वार
देखने को द्वार
जो खुला ही उस पार
जी करता है
दौर लगाने का
दरवाजे खटखटाने का
खिडकियों से राज जानने का
किसी और के महल से
अपने महल को देखने का
और कभी पर जाते है नैन
कही रख्खे आईने पर
तो कराता है आभास
खुद अपना प्रतिबिम्ब
की अब भी सूखी है झील
पानी के तरस में
सच्चाई गले में दबाये
एक बार फिर
नजर आता हूँ बंद
उसी कोठरी में
बाते करता अपने आप से
© आदित्य कुमार
Wednesday, January 26, 2011
बेड़िया मेरे मन की
बुझा हुआ सा छुपा हुआ कोने में बैठा
एक परिंदा जो पर नहीं मार सकता
खुली हवा में रह कर भी
छुप गया हो कही
अपने ही बनाये घोसले में
मौका देख झाकता है
दूर कही
उस छोटे से सुराग से
गिर गिर आती है
आजाद मकड़िया
घूरता है उसे
ओझल होने तक
जब भी मन करता है उसे
घुमने का
धरती बादल के मिलन को चूमने का
अनायास ही लग आती है बेड़िया
मानो इन्हें पता हो
मेरी हर सोच !!
जैसे कर रही हो रखवाली
मेरे मधु मन का
©Aditya Kumar
एक परिंदा जो पर नहीं मार सकता
खुली हवा में रह कर भी
छुप गया हो कही
अपने ही बनाये घोसले में
मौका देख झाकता है
दूर कही
उस छोटे से सुराग से
गिर गिर आती है
आजाद मकड़िया
घूरता है उसे
ओझल होने तक
जब भी मन करता है उसे
घुमने का
धरती बादल के मिलन को चूमने का
अनायास ही लग आती है बेड़िया
मानो इन्हें पता हो
मेरी हर सोच !!
जैसे कर रही हो रखवाली
मेरे मधु मन का
©Aditya Kumar
Tuesday, January 4, 2011
जियो जिन्दगी
जियो जिन्दगी
हर पल हल छण
बिता है और बीतेगा
अगर रहे हो हार
तो करो पलटवार
मर मानो या ना मानो
पलटवार जाएगी बेकार
क्योकि सहनी पड़ती है सबको
जिन्दगी की मार
मानो इसे जंग
चाहे रिश्ते हो या न हो संग
करो बुलंद
अपने तमाशे अपने मृदंग
भूल के अतीत भूल के अंत
क्योकि ...
अंत का गवाह अतीत है
और उस अंत में हर शहीद की जीत है
सो जियो जिन्दगी
हर पल हर छ्ण
बिता है और बीतेगा
अगर टूट रही है आस
उठ रहा विश्वास
बेचैन हो रहा मन
बुझाने वर्षो की प्यास
तो घुमा लो एक नजर
अपने आस -पास
मिल जायेगा तुम्हे कोई
बैठा उदास
लिए सदियों की प्यास
जिसकी नहीं टूटी है आस
न उठा है विश्वास
सो जियो जिन्दगी
हर पल हर छ्ण
बिता है और बीतेगा
©Aditya Kumar
हर पल हल छण
बिता है और बीतेगा
अगर रहे हो हार
तो करो पलटवार
मर मानो या ना मानो
पलटवार जाएगी बेकार
क्योकि सहनी पड़ती है सबको
जिन्दगी की मार
मानो इसे जंग
चाहे रिश्ते हो या न हो संग
करो बुलंद
अपने तमाशे अपने मृदंग
भूल के अतीत भूल के अंत
क्योकि ...
अंत का गवाह अतीत है
और उस अंत में हर शहीद की जीत है
सो जियो जिन्दगी
हर पल हर छ्ण
बिता है और बीतेगा
अगर टूट रही है आस
उठ रहा विश्वास
बेचैन हो रहा मन
बुझाने वर्षो की प्यास
तो घुमा लो एक नजर
अपने आस -पास
मिल जायेगा तुम्हे कोई
बैठा उदास
लिए सदियों की प्यास
जिसकी नहीं टूटी है आस
न उठा है विश्वास
सो जियो जिन्दगी
हर पल हर छ्ण
बिता है और बीतेगा
©Aditya Kumar
सर्द अँधेरी राते
आज दिन ही कुछ ऐसा है
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
मन शुन्य की तलाश में
टकरा के इधर
टकरा के उधर
भटक रहा है
इस चार दिवारी में
रुक जाता है
कौंध उठता है
सुन के हर आवाज
इतनी स्पष्ट इतनी मधुर
बैठा है सोचने ,कोई नया विधुर
पछतावा दिन भर का
कोसने अपने आप को
बाकि रह गये है
चंद घंटे ही सोने को
सर में उठ रहे
वेदना सम - वेदना की लड़ाई में
पिस गया है मन कही
इंतज़ार अब भी है
किसी के आने का
छुपा रख्खा है अब तक
रोटिया लपेटे हुए
मार के किसी की भूख
देखने को ख़ुशी
तुम्हारे चेहरे पर
मन भी अब थक चूका है
सच कहू उब चूका है
चाहत है छुटकारे की
घबराईये नहीं
ये बीमारी है नींद न आने की
पर क्या करू
आज दिन ही कुछ ऐसा है
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
©Aditya Kumar
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
मन शुन्य की तलाश में
टकरा के इधर
टकरा के उधर
भटक रहा है
इस चार दिवारी में
रुक जाता है
कौंध उठता है
सुन के हर आवाज
इतनी स्पष्ट इतनी मधुर
बैठा है सोचने ,कोई नया विधुर
पछतावा दिन भर का
कोसने अपने आप को
बाकि रह गये है
चंद घंटे ही सोने को
सर में उठ रहे
वेदना सम - वेदना की लड़ाई में
पिस गया है मन कही
इंतज़ार अब भी है
किसी के आने का
छुपा रख्खा है अब तक
रोटिया लपेटे हुए
मार के किसी की भूख
देखने को ख़ुशी
तुम्हारे चेहरे पर
मन भी अब थक चूका है
सच कहू उब चूका है
चाहत है छुटकारे की
घबराईये नहीं
ये बीमारी है नींद न आने की
पर क्या करू
आज दिन ही कुछ ऐसा है
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
©Aditya Kumar
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