बुझा हुआ सा छुपा हुआ कोने में बैठा
एक परिंदा जो पर नहीं मार सकता
खुली हवा में रह कर भी
छुप गया हो कही
अपने ही बनाये घोसले में
मौका देख झाकता है
दूर कही
उस छोटे से सुराग से
गिर गिर आती है
आजाद मकड़िया
घूरता है उसे
ओझल होने तक
जब भी मन करता है उसे
घुमने का
धरती बादल के मिलन को चूमने का
अनायास ही लग आती है बेड़िया
मानो इन्हें पता हो
मेरी हर सोच !!
जैसे कर रही हो रखवाली
मेरे मधु मन का
©Aditya Kumar
Wednesday, January 26, 2011
Tuesday, January 4, 2011
जियो जिन्दगी
जियो जिन्दगी
हर पल हल छण
बिता है और बीतेगा
अगर रहे हो हार
तो करो पलटवार
मर मानो या ना मानो
पलटवार जाएगी बेकार
क्योकि सहनी पड़ती है सबको
जिन्दगी की मार
मानो इसे जंग
चाहे रिश्ते हो या न हो संग
करो बुलंद
अपने तमाशे अपने मृदंग
भूल के अतीत भूल के अंत
क्योकि ...
अंत का गवाह अतीत है
और उस अंत में हर शहीद की जीत है
सो जियो जिन्दगी
हर पल हर छ्ण
बिता है और बीतेगा
अगर टूट रही है आस
उठ रहा विश्वास
बेचैन हो रहा मन
बुझाने वर्षो की प्यास
तो घुमा लो एक नजर
अपने आस -पास
मिल जायेगा तुम्हे कोई
बैठा उदास
लिए सदियों की प्यास
जिसकी नहीं टूटी है आस
न उठा है विश्वास
सो जियो जिन्दगी
हर पल हर छ्ण
बिता है और बीतेगा
©Aditya Kumar
हर पल हल छण
बिता है और बीतेगा
अगर रहे हो हार
तो करो पलटवार
मर मानो या ना मानो
पलटवार जाएगी बेकार
क्योकि सहनी पड़ती है सबको
जिन्दगी की मार
मानो इसे जंग
चाहे रिश्ते हो या न हो संग
करो बुलंद
अपने तमाशे अपने मृदंग
भूल के अतीत भूल के अंत
क्योकि ...
अंत का गवाह अतीत है
और उस अंत में हर शहीद की जीत है
सो जियो जिन्दगी
हर पल हर छ्ण
बिता है और बीतेगा
अगर टूट रही है आस
उठ रहा विश्वास
बेचैन हो रहा मन
बुझाने वर्षो की प्यास
तो घुमा लो एक नजर
अपने आस -पास
मिल जायेगा तुम्हे कोई
बैठा उदास
लिए सदियों की प्यास
जिसकी नहीं टूटी है आस
न उठा है विश्वास
सो जियो जिन्दगी
हर पल हर छ्ण
बिता है और बीतेगा
©Aditya Kumar
सर्द अँधेरी राते
आज दिन ही कुछ ऐसा है
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
मन शुन्य की तलाश में
टकरा के इधर
टकरा के उधर
भटक रहा है
इस चार दिवारी में
रुक जाता है
कौंध उठता है
सुन के हर आवाज
इतनी स्पष्ट इतनी मधुर
बैठा है सोचने ,कोई नया विधुर
पछतावा दिन भर का
कोसने अपने आप को
बाकि रह गये है
चंद घंटे ही सोने को
सर में उठ रहे
वेदना सम - वेदना की लड़ाई में
पिस गया है मन कही
इंतज़ार अब भी है
किसी के आने का
छुपा रख्खा है अब तक
रोटिया लपेटे हुए
मार के किसी की भूख
देखने को ख़ुशी
तुम्हारे चेहरे पर
मन भी अब थक चूका है
सच कहू उब चूका है
चाहत है छुटकारे की
घबराईये नहीं
ये बीमारी है नींद न आने की
पर क्या करू
आज दिन ही कुछ ऐसा है
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
©Aditya Kumar
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
मन शुन्य की तलाश में
टकरा के इधर
टकरा के उधर
भटक रहा है
इस चार दिवारी में
रुक जाता है
कौंध उठता है
सुन के हर आवाज
इतनी स्पष्ट इतनी मधुर
बैठा है सोचने ,कोई नया विधुर
पछतावा दिन भर का
कोसने अपने आप को
बाकि रह गये है
चंद घंटे ही सोने को
सर में उठ रहे
वेदना सम - वेदना की लड़ाई में
पिस गया है मन कही
इंतज़ार अब भी है
किसी के आने का
छुपा रख्खा है अब तक
रोटिया लपेटे हुए
मार के किसी की भूख
देखने को ख़ुशी
तुम्हारे चेहरे पर
मन भी अब थक चूका है
सच कहू उब चूका है
चाहत है छुटकारे की
घबराईये नहीं
ये बीमारी है नींद न आने की
पर क्या करू
आज दिन ही कुछ ऐसा है
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
©Aditya Kumar
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COPYRIGHT 2010. © 2010. The blog author holds the copyright over all the blog posts, in this blog. Republishing in any language or translating my works or any part of it without permission is not permitted"
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