वो क्या है जो मुझे जगाये है
जो मुझमे उलझनों के जाल बुन रहा है
जो कभी रोकता है
तो कभी,
पंख लगा ढकेल देता है
वो क्या है जो मुझे सताए है
जो मुझे प्राप्त अनुभवों को खंगाल रहा है
जो कहता है जा थाम ले उसका हाथ
तो कभी,
धोके की ईट से बना देता दीवार है
वो क्या है जो मुझे अर्ध-निद्रा में बनाये है
जो करवटे बदलने पे मजबूर करता है
जो कहता है भूल के सब सो जा
तो कभी,
पानी में डुबाये रखता है सिर
वो क्या है जो मुझे कमी की तरह लगती है
जो मुझे औरो से हीन बना देती है
जो कहती है पकर के पगडण्डी एक चला चल
तो कभी,
दिखा देती है पथ से पीछे छुटते प्यारे फूल
वो क्या है जो आँखे उस तस्वीर की तरफ घुमा देती है
जो मुझसे फूल और काँटों के प्रशन पूछती है
जो कहती है रेत में फूल खिलते नहीं
तो कभी ,
छोड़ देती है तितलिया मेरी ओर
आखिर कैसे करो मैं निर्णय ,कहा है सत्य
सत्य तो ये है की सिक्का घूम रहा है
न चित मेरी है ,और नाही पट
बस समय अपना है
प्रतीक्षा अपनी है ।
© आदित्य कुमार