Sunday, December 10, 2017

लागत

ये धंधा मंदा है बाकियों के लिए
मेहनत लगती है सलीका सीखने के लिए

आशिक़ मिज़ाजी तो कर लेते है फुटकर में भी
जुगत लगती है नसीहत थोक में बेचने के लिए

मौजूदगी का एहसास तो सभी कराते है
एक अरसा लगता है गैरमौजूदगी पनपने के लिए

प्यार तो सिखा देते है लोग करके
अतफाल-ए-सुकूँ चाहिए मन मचलने के लिए

चीखना चिल्लाना,रोना गाना सुन लेती है भीड़ भी
एक बोझा गिरता है आदमी के हलक तक पहुँचने के लिए

जब खुद के अनासिर से आजुर्दा हो जाते है लोग
फिर मौत लगती हैं इश्क़ में जीतने के लिए

अब और लिखोगे, तो रो दोगे "तपिश"
जिगर का टुकड़ा लगता है,कागज़ पे मरने के लिए

-आदित्य