ऐसा लगता है जिंदगी
एक घने गलियों वाला शहर है
और हम भटकते रहते है
सही ठिकानो के लिए
कुछ ठिकाने हमने
बचपन में खोज लिए थे
जिनके रस्ते अब तक कंठस्त है
पर जब भी हमें कोई मुहाना
ठिकाना होने जैसा लगता है
हम अपना एक टुकड़ा
खुद से अलग करके
छोड़ देते है कोतवाली के लिए
वक़्त गुजरता जाता है
और कोतवाल बढ़ते जाते है
और घटता जाता है
हम में से हमारापन
कभी भूले, या अक्सर
जब हमे ऐसे मुहाने
दुबारा मिलते है
हम देखते है कोतवाल
अब कोतवाल नहीं
बस एक सवाल है
जो बस एक-तक
हमारी आँखों में झांकता है
धीरे धीरे, हर मुहाना
एक सवाल में बदल जाता है
और हो जाता है हमारा भटकना
मुश्किल और दूभर
फिर एक दिन, हमारे पास
हम नहीं, बस सवाल बच जाते है
तो हम बचे हम के साथ
मुहीम बनाते है
हम को पूरा करने की
सवालो से अपने टुकड़े
वापस लाने की
फिर हमें सही ठिकानो की
चिंता नहीं रहती
फिर हमें चिंता रहती है
सिर्फ और सिर्फ
हम में जी रहे हमारेपन की
कि किस तरह बचा ले जाये
हम, अपने हमारेपन को
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