Thursday, September 29, 2016

ख़ुशी के प्रतिबिंब

कि खबर कुछ यों सी है
कि हमें एहसास हुआ
हमारे होने का, खुश होने का
हमें एहसास हुआ,
की हम चल रहे है
और हमारे साथ और भी
कौन किसकी गाड़ी में किसके साथ चल रहा है
कोई नहीं जानता।

पर क्या इस सड़क पे
सिर्फ आगे देख के आनंद लिया जा सकता है
मौसम का,
ताज़ा हवाओ का
प्रकृति का या प्रवृति का ?

कि खबर कुछ यों सी है
कि पिछले ही पल कोई मर गया था
कट कर , छिन-छिन होकर बिखर गया था
लहूलुहान होकर, अनगिनत टुकड़ो में।
और हमें एहसास हुआ
मौसम कितना डरावना है
और हवा कितनी विषैल।

अभी बगल से गुज़री है कोई खुशनुमा गाड़ी
फिर से....... फिर से
डूब गया हूँ सोच में
हमारे होने का , खुश होने का
वाकई !.......
वाकई अतीत बहुत घुलनसील है
और गाड़ी में लगे आईने से
हम अतीत को झांकते है
या अतीत खुद ?
पर पिछला आईना हो तो
लोग झांक ही लेते है।

-आदित्य

जिंदगी आज कल

जिंदगी इन दिनों अजीब सी है
वक़्त आजकल ना मौका देता है , ना वक़्त
और देर हो जाती है
आभास के आभास होने तक।
बस कुछ शब्द उठते है
आते है , जाते है
ना कोई कम्पन होती है
ना कोई आवाज उठती है
बस धूल के कुछ कण
फिर से जम जाते है, जाने पहचाने कोनो में
और पहरा लगाने लगते है
मनचले, बदमाश तरंगे।
मानो ये हो चोर है और कोतवाल भी !!

-आदित्य 

Thursday, September 15, 2016

An application for reenforcing everyday emotions naturally.

तुमने जब उस दिन अपने आँसुओ को मेरे सामने बड़ी तरलता से बहने दिया था, मैंने खुद को तुमसे थोड़ा ज्यादा नजदीक और गौरवान्वित महसूस किया था।
पर एकांत में तुम्हारे साथ, उस मार्मिक छण मे, मेरे तुम्हारे लिए मेरी सीमाओ, अधिकारों की लड़ाई और विश्लेषण की आपाधापी से जनित मेरा कुछ भी ना करने की निर्बलता का चोट काफी भीतर तक है और रहेगा।

तुम्हारे मेरे प्रति वास्तविक आचरण और मानसिक सोच से परे , तुम्हारे संग बिताये वो छण मेरे जीवन के प्रथम प्रसंगों में पत्थर की लकीर की तरह अंकित है.

प्रथम पक्ष के प्रथम प्रहर में ,
जब तुम सामने बैठ के रोई थी । 
बहुत अकुलाहट हुई थी मुझको ,
पर जाने तुम कैसे सोई  थी । 

भावों  की ज्वाला मन में लेकर ,
कुछ पास मैं तुम्हारे आया था । 
संकुचित मन की कायरता पर ,
बाद बहुत पछताया था ।