कुछ नहीं करना, बस पड़े रहना
जिंदगी से तगाफुल कब तक
उदास हो जाना, कभी हस पड़ना
ये आर पार की झंझट कब तक
ये लोग फिर बसेरा लेकर आ गए
एक ही खेत में इतने फसल कब तक
मैं जो मारने चला था सांप को
मिलते रहे इक चेहरे में इतने शक्ल कब तक
ठंडी हवा थी,खेतो का अनंत दृश्य
गाँव से बने रहे अनजान कब तक
कल रोज़ पत्थरो सी होती थी रिश्तेदारी
अक्स और रूह जुदा रहेंगे कब तक
दो थप्पड़ मारे, चुप कराने को
पलते रहेंगे बच्चे ऐसे कब तक
आग बरसा है पिता के हाथ घर पर
झुलसती रहेगी भूख ऐसे कब तक
कोई अँधा हुआ , कोई बहरा
मामला दर्ज नहीं घर का कब तक
अब जो बैठे हो, तो सेंकोगे गुलाब
जलती रहेगी मसाल आखिर कब तक
खालीपन का बोझ है , इंसानो से नफरत
आसमान में दिखेगा आफताब कब तक
फिर मिलेंगे उनसे, कर बैठेंगे उल्फत
रौशनी बिजली से होती रहेगी कब तक
शहर गए, गाँव गए, हवा हो गए
चंद रिश्तो में जीते रहेंगे कब तक
कुछ बड़ा कर , तू गली बन जा
इमारते गवाह देंगी नहीं कब तक
चाहने वाले, मरने वाले, एक से नहीं
उलझाता रहेगा अपनों का धागा कब तक
दीवार है, नज़र है , तो दरारे है
इस कसमकस में सोयेगा नहीं कब तक
तस्वीर तस्सवुर का , तस्सवुर में तस्वीर
बड़े-छोटे की गहराई नापेगा कब तक
मैला है , धुल है, पसीना बदन में
शीशे के इस पार से देखेगा कब तक
कुछ नहीं करना, बस पड़े रहना
जिंदगी से तगाफुल कब तक
-आदित्य
No comments:
Post a Comment