Wednesday, August 14, 2019

मिलता है कल आज से

तुमने जो पूरी लकीर
खींची थी मेरे बदन पर
वो अब आधी हो गयी है
और आधे पे उग आयी है खिड़की
जिससे झांकता है
कल आज होने के लिए

कल, जिसमे तुमने
नापे थे पहाड़
पार की थी नदिया
चले थे सैकड़ो मील
पर हांफ जाते थे
मेरे मकान की सीढ़िया चढ़ते हुए
शायद इसीलिए वो मकान
हमारा घर नहीं हो पाया कभी

कल,
जब सारे हिस्से तुम्हारे थे
सारे रस्ते तुम्हारे थे
दिन और रात तुम्हारा था
पर तुम व्यस्त थे
बंद करते हुए खुद को
किसी कोठरी में

कल जब किसी कल
तुम न आये थे
आने वाले कल का
इंतज़ार करता हुआ कल
आज तक नहीं सोया
और जितने आंसू आये
वो उम्र की इज़्ज़त बचाने में
कल की आँखों में पसर कर रह गए

पर सच तो ये है
कि लकीर आधी हुई ही नहीं
मैंने मान लिया
खिड़की कभी उगी ही नहीं
मैंने मान लिया

और मेरा आज
जो जी रहा आधी लकीर में
अब भी कभी झाँक के तलाश लेता है
कल से भी पुराने कल को
जिसमे तुम दौड़ रहे होते हो
मेरी ओर

और अगले ही पल
दोनों खड़े होते है
पारदर्शी शीशे के दोनों तरफ
हथेलिया मिलाते हुए