Thursday, May 28, 2020

मुसाफिर

(बहुत पहले की लिखी कविता)

सड़के है सुनसान
चला जा रहा एक इंसान
पी के कुछ जाम
अपने प्यार के नाम

दूर कुछ रौशनी सी नज़र आ रही है
जिसकी आस में चाल बढ़ती जा रही है
खुश हूँ इस घने अँधेरे में रौशनी को देखकर
पर रौशनी की दूरी भी बढ़ती जा रही है

अब तो किसी की आस ना रही
दिल में पलते यादों की एहसास ना रही
प्यास तो लगी थी बहुत पहले से
उनके प्यार की
पर उस प्यास की, अब प्यास ना रही

मुसाफिर मुझ जैसे, अब नज़र आते नहीं इस राह में
बहुत पीछे छूट गए है किसी की चाह में।

करो बातें

मुझसे करो बातें
जो हो बारीक, महीन
तुम्हारे बालों की तरह !

बुन दो जाल
आसान सा,
और मैं
सुलझा लू सुबह होने तक

फिर सो जाऊ
तुम्हारा सवेरे वाला
चेहरा देखकर