Friday, September 14, 2012

भिखारन माँ


निगाहे दौड़ती रहती है
आसरा ढ़ूढती रहती है
कभी इधर कभी उधर
एक छोटी सी ज़मी का टुकड़ा
जहा बैठ सकू खुद को समेटकर

क्या मैंने पहना है
क्या मेरे पास है
एक गन्दी थैली प्लास्टिक की
वही खजाने खास है

ना देखती मैं कपड़ो को
ना देखती मोटर कार को
लालच की क्या परिभाषा दू
जब जीभ तरस गयी आचार को

शहनाई सुनु  सड़को पर जब मैं
तो छलक आये संसार है
और कैसे करे याद वो औरत
जो विधवा और लाचार  है

पेट का खेल तो सब जाने है
फिर भी सबने माऱा  है
इक चमचमाती पाकिट नमकीन की
पेट बांध , घंटो निहारा है

जिन हाथो से दान दिए थे
उनको आज कैसे फैलाऊ
जो छुए तेरे फ़िल्मी दिल को
ऐसे बोल कहा से लाऊ

मिट्टी  में सनी हूँ
मिट्टी का इंतज़ार है
बस य़ू  ही न फेक देना
मैं हिन्दू हूँ
जलना मेरा  भी अधिकार है 

हमने भी लाये थे इलाईची दाने
अपने पल्लू में बांधकर
इन बूढी आँखों को देखो गौर से
नज़र आयेगी एक माँ तुम्हे
अपना सब कुछ हारकर
अपना सब कुछ हारकर 

Sunday, April 8, 2012

Installing and running xerces in c/c++

I am working on storing data in XML files.I faced a lot of problems while installing the xerces from its binary distribution.I hav'nt found any good tutorial on the internet for its installation and running.
Therefore  I am posting here steps that I followed in order to install /run it.

1.Download the binary distribution of xerces according to your system configuration from the
http://xerces.apache.org

if you are on 32 bit system you can download this.
http://apache.mirrors.redwire.net//xerces/c/3/binaries/xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc-3.4.tar.gz

2.Extract the .tar.gz
     -> using command line or you can directly open it with archive manager.
 extracting the file will create a sub-directory "xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc-3.4"

lets say i have extracted in my /home/aditya/tools/ directory.
so its full path will be
/home/aditya/tools/xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc

3.Now open your .bashrc file which is in your home directory i.e /home/aditya/.bashrc

add following line in it (modify your path according to the location of extracted files)


export PATH="$PATH:/home/aditya/tools/xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc-3.4/bin"

export LD_LIBRARY_PATH=/home/aditya/tools/xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc-3.4/lib:$LD_LIBRARY_PATH



export PKG_CONFIG_PATH=/usr/lib/pkgconfig:/usr/local/lib/pkgconfig:/home/aditya/tools/xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc-3.4/lib/pkgconfig

4.lets say my program name is xml.main.cpp
then run it with g++ like this

g++ -I/home/aditya/tools/xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc-3.4/include/ -L /home/aditya/tools/xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc-3.4/lib/ -lxerces-c -g -Wall -pedantic  xml.main.cpp

5.Its tedious to write these things in each compilation.So you can add an alias in you .bashrc file

alias gxr="g++ -I/home/aditya/tools/xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc-3.4/include/ -L /home/aditya/tools/xerces-c-3.1.1-x86-linux-gcc-3.4/lib/ -lxerces-c -g -Wall -pedantic"

now you can compile like

gxr xml.main.cpp


If you found any problem in above steps..you can ask in comments.!!

Enjoy



Friday, February 24, 2012

इक खारा झील

मैं कड़वा हू नहीं वक़्त ने बना दिया है . मैं वो नदी तो था  ही नहीं जो सुन्दर खुशनुमा पहाड़ो से निकलती है . वो तो जहा जाती है लोगो की प्यास बुझती है. मंद मंद मुस्कुराती बहती नदी जिसे लोग बस देखने नहीं आते , जिसे लोग चुमते है, अपने हाथ से लेकर अपने दिल में उतार लेते है जो तुम्हारे जश्न में शरीक होके और भी रंगीन हो जाती है ,जो रक्त की भाति तुम्हारी जिंदगी में दौड़ती है जो तुम्हारे जन्म से मृत्यु तक विभिन्न घटनाओ का गवाह बनती है .मैं तो वो कभी था ही नहीं और ना ही हो सकता हूँ . मैं तो धरती के जायके का कड़वा स्वाद हूँ और ये कड़वाहट उतनी भी नहीं थी जितनी इन गर्म हवाओ के साथ रहकर आ गयी है .एक तरफ जहा नदिया अपने अंत में जाकर खारी होती है वहा मै उसी खारे पानी से निकला एक नहर हूँ . मैंने कोशिश तो बहुत की तुमसे मिलने की ,नदी के जैसे तुम्हारी खुशियों में घुलने की पर मैं हारता रहा , मैं जानता हूँ की मेरा घुलना आसान नहीं है , मैं जानता हूँ की ऊपर वाले ने कुछ और ही घोल रखा है मुझमे , मैं जानता हूँ की जिस जड़ पे मैं उगा हू वहा सबकी जड़े ख़तम हो जाती है. पर शायद तुम ये नहीं जानते की मेरे जिस खारेपन से तुम इतनी नफरत करते हो ऊपर वाले ने वही खारापन सबसे ज्यादा बाटा है यहा .

क्या हुआ की कोई आकर मुझे चूमता नहीं ,क्या हुआ कि कोई नंगे पैर अपने प्रेमिका के साथ मुझमे ठिठोलिया नहीं करता ,क्या हुआ की लोग मुझसे तुम जैसा प्यार नहीं करते ,क्या हुआ की वो मुझे अपने दिल में नहीं उतारते पर मैं खुश हूँ की मैं उनके काम आता हूँ . जब वो मुझसे मेरा कतरा अलग करके उस धूप के हवाले कर देते है . जहा मेरा अस्तित्व गर्म हवाओ में विलीन हो जाता है. और जब मैं नहीं मेरी राख बच जाती है वहा .तब मुझे भी वही सम्मान वही प्यार मिलता है जैसा मैंने तुम्हे मिलते देखा था.मैं भी उनके जश्न में शरीक होता हू . उनके खाने के साथ उनके दिल में उतर जाता हूँ .मुझे अच्छा लगता है की मैं उनकी जीवन का एक हिस्सा तो बन सका.

और साथ ही मैं अपने को सांत्वना देने के लिए अपने से कहता हू की काश मैं तुम्हे ये समझा पता की नदी और मुझमे ज्यादा अंतर नहीं बस वो खारी बाद में होती है और मैं खारा पहले हो गया हू. वो गतिशील है और मैं स्थिर ,उसका जीवन-मरण उसके उद्गम और समागम पर ही परिभाषित होते है परन्तु इन दो बिन्दुओ के बीच वो अजर है ,अमर है वो हर पल जीवन है जबकि मैं हर पल परिभाषित होता हूँ ,परिवर्तन ही मेरा अमर भविष्य है और मुझे पता है की एक दिन वो भी आएगा जब मैं सागर से अलग हो जाऊंगा  ,जब मेरा दाता ही मुझसे छूट जायेगा. मैं तो वृक्ष की वो डाल हू जो वृक्ष के साथ बलिष्ठ और मोटी नहीं होती , मैं तो उनमे से हूँ जो एक दिन सूख कर गिर जाती है. मेरा हस्र भी वही होगा जो उस सुखी डाल का होता है ,या तो कोई उठा कर ले जायेगा और  जला कर ख़तम कर देगा या फिर वही मिटटी में पड़े आहिस्ता आहिस्ता सड़ जायेगा .मेरा ऐसा बेनाम अंत नाकारा नहीं जा सकता .पर मुझे भरोसा है उस बनाने वाले पे जिसने मुझे,तुम्हे, नदी, सागर सबको बनाया है ,मुझे उसके न्याय पे विश्वास है . और उसने न्याय किया भी है.
तुमने मुझे चाहा तो नहीं पर याद रखना ,जब भी तुम रोओगे अपने किसी असाधारण पल पे, मैं तुम्हारे आंसुओ में नज़र आऊँगा क्योंकि उनके खारेपन में कोई और नहीं मेरा कतरा  ही जी रहा होगा.मैं मर तो गया पर अब भी जिन्दा हू तुझमे . भले मेरे होने का एहसास  तुम्हे कभी कभी होता हो.पर यही है मेरी अमर जिन्दगी.

Wednesday, January 11, 2012

वो क्या है


वो क्या है जो मुझे जगाये है
जो मुझमे उलझनों के जाल बुन रहा है
जो कभी रोकता है
तो कभी,
पंख लगा ढकेल देता है

वो क्या है जो मुझे सताए है
जो मुझे प्राप्त अनुभवों को खंगाल रहा है
जो कहता है जा थाम ले उसका हाथ
तो कभी,
धोके की ईट से बना देता दीवार है

वो क्या है जो मुझे अर्ध-निद्रा में बनाये है
जो करवटे बदलने पे मजबूर करता है
जो कहता है भूल के सब सो जा
तो कभी,
पानी में डुबाये रखता है सिर

वो क्या है जो मुझे कमी की तरह लगती है
जो मुझे औरो से हीन बना देती है
जो कहती है पकर के पगडण्डी एक चला चल
तो कभी,
दिखा देती है पथ से पीछे छुटते प्यारे फूल

वो क्या है जो आँखे उस तस्वीर की तरफ घुमा देती है
जो मुझसे फूल और काँटों के प्रशन पूछती है
जो कहती है रेत में फूल खिलते नहीं
तो कभी ,
छोड़ देती है तितलिया मेरी ओर

आखिर कैसे करो मैं निर्णय ,कहा है सत्य
सत्य तो ये है की सिक्का घूम रहा है
न चित मेरी है ,और नाही पट
बस समय अपना है
प्रतीक्षा अपनी है ।

© आदित्य कुमार