Friday, February 24, 2012

इक खारा झील

मैं कड़वा हू नहीं वक़्त ने बना दिया है . मैं वो नदी तो था  ही नहीं जो सुन्दर खुशनुमा पहाड़ो से निकलती है . वो तो जहा जाती है लोगो की प्यास बुझती है. मंद मंद मुस्कुराती बहती नदी जिसे लोग बस देखने नहीं आते , जिसे लोग चुमते है, अपने हाथ से लेकर अपने दिल में उतार लेते है जो तुम्हारे जश्न में शरीक होके और भी रंगीन हो जाती है ,जो रक्त की भाति तुम्हारी जिंदगी में दौड़ती है जो तुम्हारे जन्म से मृत्यु तक विभिन्न घटनाओ का गवाह बनती है .मैं तो वो कभी था ही नहीं और ना ही हो सकता हूँ . मैं तो धरती के जायके का कड़वा स्वाद हूँ और ये कड़वाहट उतनी भी नहीं थी जितनी इन गर्म हवाओ के साथ रहकर आ गयी है .एक तरफ जहा नदिया अपने अंत में जाकर खारी होती है वहा मै उसी खारे पानी से निकला एक नहर हूँ . मैंने कोशिश तो बहुत की तुमसे मिलने की ,नदी के जैसे तुम्हारी खुशियों में घुलने की पर मैं हारता रहा , मैं जानता हूँ की मेरा घुलना आसान नहीं है , मैं जानता हूँ की ऊपर वाले ने कुछ और ही घोल रखा है मुझमे , मैं जानता हूँ की जिस जड़ पे मैं उगा हू वहा सबकी जड़े ख़तम हो जाती है. पर शायद तुम ये नहीं जानते की मेरे जिस खारेपन से तुम इतनी नफरत करते हो ऊपर वाले ने वही खारापन सबसे ज्यादा बाटा है यहा .

क्या हुआ की कोई आकर मुझे चूमता नहीं ,क्या हुआ कि कोई नंगे पैर अपने प्रेमिका के साथ मुझमे ठिठोलिया नहीं करता ,क्या हुआ की लोग मुझसे तुम जैसा प्यार नहीं करते ,क्या हुआ की वो मुझे अपने दिल में नहीं उतारते पर मैं खुश हूँ की मैं उनके काम आता हूँ . जब वो मुझसे मेरा कतरा अलग करके उस धूप के हवाले कर देते है . जहा मेरा अस्तित्व गर्म हवाओ में विलीन हो जाता है. और जब मैं नहीं मेरी राख बच जाती है वहा .तब मुझे भी वही सम्मान वही प्यार मिलता है जैसा मैंने तुम्हे मिलते देखा था.मैं भी उनके जश्न में शरीक होता हू . उनके खाने के साथ उनके दिल में उतर जाता हूँ .मुझे अच्छा लगता है की मैं उनकी जीवन का एक हिस्सा तो बन सका.

और साथ ही मैं अपने को सांत्वना देने के लिए अपने से कहता हू की काश मैं तुम्हे ये समझा पता की नदी और मुझमे ज्यादा अंतर नहीं बस वो खारी बाद में होती है और मैं खारा पहले हो गया हू. वो गतिशील है और मैं स्थिर ,उसका जीवन-मरण उसके उद्गम और समागम पर ही परिभाषित होते है परन्तु इन दो बिन्दुओ के बीच वो अजर है ,अमर है वो हर पल जीवन है जबकि मैं हर पल परिभाषित होता हूँ ,परिवर्तन ही मेरा अमर भविष्य है और मुझे पता है की एक दिन वो भी आएगा जब मैं सागर से अलग हो जाऊंगा  ,जब मेरा दाता ही मुझसे छूट जायेगा. मैं तो वृक्ष की वो डाल हू जो वृक्ष के साथ बलिष्ठ और मोटी नहीं होती , मैं तो उनमे से हूँ जो एक दिन सूख कर गिर जाती है. मेरा हस्र भी वही होगा जो उस सुखी डाल का होता है ,या तो कोई उठा कर ले जायेगा और  जला कर ख़तम कर देगा या फिर वही मिटटी में पड़े आहिस्ता आहिस्ता सड़ जायेगा .मेरा ऐसा बेनाम अंत नाकारा नहीं जा सकता .पर मुझे भरोसा है उस बनाने वाले पे जिसने मुझे,तुम्हे, नदी, सागर सबको बनाया है ,मुझे उसके न्याय पे विश्वास है . और उसने न्याय किया भी है.
तुमने मुझे चाहा तो नहीं पर याद रखना ,जब भी तुम रोओगे अपने किसी असाधारण पल पे, मैं तुम्हारे आंसुओ में नज़र आऊँगा क्योंकि उनके खारेपन में कोई और नहीं मेरा कतरा  ही जी रहा होगा.मैं मर तो गया पर अब भी जिन्दा हू तुझमे . भले मेरे होने का एहसास  तुम्हे कभी कभी होता हो.पर यही है मेरी अमर जिन्दगी.

1 comment:

  1. mera prashn ye h ki lekh aapne kisko sambhodhit kia hai ??

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