Wednesday, August 26, 2020

हम में हमारापन

ऐसा लगता है जिंदगी
एक घने गलियों वाला शहर है
और हम भटकते रहते है
सही ठिकानो के लिए
कुछ ठिकाने हमने
बचपन में खोज लिए थे
जिनके रस्ते अब तक कंठस्त है

पर जब भी हमें कोई मुहाना
ठिकाना होने जैसा लगता है
हम अपना एक टुकड़ा
खुद से अलग करके
छोड़ देते है कोतवाली के लिए

वक़्त गुजरता जाता है
और कोतवाल बढ़ते जाते है
और घटता जाता है
हम में से हमारापन

कभी भूले, या अक्सर
जब हमे ऐसे मुहाने
दुबारा मिलते है
हम देखते है कोतवाल
अब कोतवाल नहीं
बस एक सवाल है
जो बस एक-तक
हमारी आँखों में झांकता है

धीरे धीरे, हर मुहाना
एक सवाल में बदल जाता है
और हो जाता है हमारा भटकना
मुश्किल और दूभर

फिर एक दिन, हमारे पास
हम नहीं, बस सवाल बच जाते है
तो हम बचे हम के साथ
मुहीम बनाते है
हम को पूरा करने की
सवालो से अपने टुकड़े
वापस लाने की
फिर हमें सही ठिकानो की
चिंता नहीं रहती
फिर हमें चिंता रहती है
सिर्फ और सिर्फ
हम में जी रहे हमारेपन की
कि किस तरह बचा ले जाये
हम, अपने हमारेपन को

Thursday, May 28, 2020

मुसाफिर

(बहुत पहले की लिखी कविता)

सड़के है सुनसान
चला जा रहा एक इंसान
पी के कुछ जाम
अपने प्यार के नाम

दूर कुछ रौशनी सी नज़र आ रही है
जिसकी आस में चाल बढ़ती जा रही है
खुश हूँ इस घने अँधेरे में रौशनी को देखकर
पर रौशनी की दूरी भी बढ़ती जा रही है

अब तो किसी की आस ना रही
दिल में पलते यादों की एहसास ना रही
प्यास तो लगी थी बहुत पहले से
उनके प्यार की
पर उस प्यास की, अब प्यास ना रही

मुसाफिर मुझ जैसे, अब नज़र आते नहीं इस राह में
बहुत पीछे छूट गए है किसी की चाह में।

करो बातें

मुझसे करो बातें
जो हो बारीक, महीन
तुम्हारे बालों की तरह !

बुन दो जाल
आसान सा,
और मैं
सुलझा लू सुबह होने तक

फिर सो जाऊ
तुम्हारा सवेरे वाला
चेहरा देखकर

Wednesday, December 4, 2019

बड़े होकर सुधरना

रोज़ ही तो शाम होती है
रोज़ ही हम सपनो से थके लौटते है
और रोज़ ही सपनो में खो जाते है
बस इक एहसास की लत है
जिसके बिना हर रोज़ अधूरा लगता है
आदत पड़ गयी है

लत अच्छी नहीं होती
शायद वही लग गयी है मुझे
जब घूमता नहीं तो खो जाता हूँ
बहुत फिल्मी हो गया हूँ आजकल
जान जगहों पड़ अनजान चेहरों में
इक कहानी तलाशने लगता हूँ
बिलकुल सुराग वाले जासूस किरदार की तरह

चढ़ जाता हूँ खुद की निगाहो में
एकदम शराब की तरह
और तब तक उबलता रहता हूँ
रेत  के टीलों  पर
जब तक शब्द की हवा उड़ा नहीं देती

मैं मूर्ख या बेवक़ूफ़ नहीं, ढोंगी और डरपोक हूँ
भला खुद से भी भागने का कोई अंत होता है

बड़ा हूँ गया हूँ मैं
अब बस प्यार वाली डाँट खाता हूँ
चोट वाली डाँट  से रोये एक अरसा हो गया है
काश,
काश कोई मेरी खातिर
मेरी खातिर, मेरी ही खातिर
मुझे एक जोरदार तमाचा मार दे दिल से
क्योकि ,
बचपन से आजतक बिन पिटे सुधरा नहीं हूँ

तो गिरू क्यों ?

मैं अजीब हूँ
जो केवल वक़्त बर्बाद करना चाहता हूँ
आबाद नहीं
आबाद क्यों नहीं, ये मुद्दा है
और मुद्दो के लिए वक़्त नहीं है

जो चीज़े चले नहीं उसे खीचू क्यों
जो चल रही है उसे रोकू क्यों

मैं जो आया हूँ, तो पूरा करूँगा अपना कोष
मुझे दिखती है दीवारे
दीवारे, दशकों पुरानी दीवारे
मैं दिवार भी तो हूँ
वो दिवार भी, जो भरे बाजार में
लोगो का पेशाब सूंघती है
या वो जिसे अनजाने में लोग खुरच देते है
मैं जो दिवार हूँ
अगर ढह नहीं रही तो गिरू क्यों ?

Tuesday, December 3, 2019

सुराख़







अभी कल ही तो देखा था उसे
घर के आँगन में सुराख़ भरते
वो सुराख़ जिसमे चीटियां रहती थी

वो सुराख़ जिसमे अब चीटियां नहीं रहती
वो सुराख़ जिसमे अब जीव नहीं मुर्दे रहते है
वो सुराख़ जो घर से शवघर बन गया
वो सुराख़ जहा बस अँधेरा और सन्नाटा है
वो सुराख़ जो केवल ऊपर से भरा है
वो सुराख़ जो एक खोखला अतीत मात्र है 

तीव्रता कम हो गयी है

जैसे तीव्रता कम हो गयी है
प्यार करने की
उदास होने की 
सबकी 
अब कुछ भी मुझे भीतर तक अनुभव नहीं होता
बाकी,
मन के समुन्द्र में जो भी बचा है
उसमे,
प्यार में एक दो लहरे उठती है 
और उदासी में एक दो गिरती 
बाकी अनुभूतिया 
बस स्थिर में ही पनपती है
और स्थिर में ही समा जाती है