Wednesday, December 4, 2019

बड़े होकर सुधरना

रोज़ ही तो शाम होती है
रोज़ ही हम सपनो से थके लौटते है
और रोज़ ही सपनो में खो जाते है
बस इक एहसास की लत है
जिसके बिना हर रोज़ अधूरा लगता है
आदत पड़ गयी है

लत अच्छी नहीं होती
शायद वही लग गयी है मुझे
जब घूमता नहीं तो खो जाता हूँ
बहुत फिल्मी हो गया हूँ आजकल
जान जगहों पड़ अनजान चेहरों में
इक कहानी तलाशने लगता हूँ
बिलकुल सुराग वाले जासूस किरदार की तरह

चढ़ जाता हूँ खुद की निगाहो में
एकदम शराब की तरह
और तब तक उबलता रहता हूँ
रेत  के टीलों  पर
जब तक शब्द की हवा उड़ा नहीं देती

मैं मूर्ख या बेवक़ूफ़ नहीं, ढोंगी और डरपोक हूँ
भला खुद से भी भागने का कोई अंत होता है

बड़ा हूँ गया हूँ मैं
अब बस प्यार वाली डाँट खाता हूँ
चोट वाली डाँट  से रोये एक अरसा हो गया है
काश,
काश कोई मेरी खातिर
मेरी खातिर, मेरी ही खातिर
मुझे एक जोरदार तमाचा मार दे दिल से
क्योकि ,
बचपन से आजतक बिन पिटे सुधरा नहीं हूँ

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