आज दिन ही कुछ ऐसा है
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
मन शुन्य की तलाश में
टकरा के इधर
टकरा के उधर
भटक रहा है
इस चार दिवारी में
रुक जाता है
कौंध उठता है
सुन के हर आवाज
इतनी स्पष्ट इतनी मधुर
बैठा है सोचने ,कोई नया विधुर
पछतावा दिन भर का
कोसने अपने आप को
बाकि रह गये है
चंद घंटे ही सोने को
सर में उठ रहे
वेदना सम - वेदना की लड़ाई में
पिस गया है मन कही
इंतज़ार अब भी है
किसी के आने का
छुपा रख्खा है अब तक
रोटिया लपेटे हुए
मार के किसी की भूख
देखने को ख़ुशी
तुम्हारे चेहरे पर
मन भी अब थक चूका है
सच कहू उब चूका है
चाहत है छुटकारे की
घबराईये नहीं
ये बीमारी है नींद न आने की
पर क्या करू
आज दिन ही कुछ ऐसा है
सर्द अँधेरी रातो जैसा है
©Aditya Kumar
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