Wednesday, April 6, 2011

बेपर उड़ान (सच्चाई)

भूल जाता हूँ
रहकर बहुत कभी
रम जाता हूँ उसमे भी
खोल देता हूँ द्वार सारे
औरो के झाकने को

भटकती रहती है निगाहे
इस द्वार उस द्वार
देखने को द्वार
जो खुला ही उस पार

जी करता है
दौर लगाने का
दरवाजे खटखटाने का
खिडकियों से राज जानने का
किसी और के महल से
अपने महल को देखने का

और कभी पर जाते है नैन
कही रख्खे आईने पर
तो कराता है आभास
खुद अपना प्रतिबिम्ब
की अब भी सूखी है झील
पानी के तरस में

सच्चाई गले में दबाये
एक बार फिर
नजर आता हूँ बंद
उसी कोठरी में
बाते करता अपने आप से

© आदित्य कुमार

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